बेनाम कोहड़ाबाज़ारी उवाच
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ज़माने की चाल से
परेशां मैं उम्र भर ,
फसाँ हुआ था अबतक ,
मुश्किल जंजाल मैं .
ज़माने की बातें भी
कहाँ कभी सुलझी है ,
अपनी हीं बातों में
दुनियां ये उलझी है .
होश में भी होकर
क्या करती ये दुनियाँ ,
क्या कहती ये दुनियाँ
क्या सुनती ये दुनियाँ .
कभी औरों पे हँसती है
कभी अपनों पे रोती है
रहा इसके तरीकों से
मैं बवाल में.
कि होश में रहकर भी
करना क्या काम है ,
झूठी मुठी बातें हीं
करती आवाम हैं .
तेरी बातें मेरे
समझ के नाकाबिल है ,
जाहिल से लोग मुझे
कहते फिर जाहिल है .
बेनाम एक अर्ज है
गर निभ गयी है दुश्मनी तो
छोड़ दो अब जैसे भी
हूँ खुश फिलहाल मैं .
उर्फ
बेनाम कोहड़ाबाज़ारी
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