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इल्जाम-बेनाम कोहड़ाबाजारी

बेनाम कोहड़ाबाज़ारी उवाच
बेनाम कोहड़ाबाज़ारी उवाच
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कड़कती ठंढ थी बड़ी , था दिसम्बर का महिना ।
घनेरी धुंध में मुश्किल , हुआ था ठीक से चलना ।

इसी दिल्ली की सर्दी में , जीने के वास्ते भाई ।
गया था मैं भी अपने , ऑफिस के रास्ते भाई ।

निकलता मुख से था धुआं व सिमटे हुए थे लोग ।
मेरे माथे पे थी टोपी , और सिने पे ओवरकोट ।

इसी कड़कती ठंढ में , देखा कोई था चिथड़े में ।
कुडे से लेके छिलके , केले के डाल जबड़े में ।

कुत्तों से कर रहा था छिना झपटी कुडे के वास्ते ।
खुदा तू ही बता में क्या लिखूं अब तेरे वास्ते ।

माना सबकुछ मिला मुझको तेरी इस दुनिया में ।
फ़िर भी शिकायत है मुझे , इस तेरी दुनिया से ।

उस इंसान का चेहरा सिने से उतरता नहीं ।
है बेहतर कुत्तों की हालत , उस इंसान से कहीं ।

क्यूँ कर नसीबों वाले ऐसे इस जहाँ में है आते ।
खुदा में दे रहा इल्जाम इन अभागों के वास्ते ।

बेनाम कोहडाबाजारी
उर्फ़
अजय अमिताभ सुमन

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